शायरी
“शायरी”
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कतारे़ तो सिर्फ़ मेरे दुश्मनों की थी वहाँ..!
जब देखा तो कई चेहरे जाने पहचाने निकलें..!
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जिन्हे हम कहते थें अक्सर वो मेरे अपने हैं
जरूरत पड़ी उनकी, तो सभी बेगाने निकलें.
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जिन्हे समझ बैठा था मै अपना खुदा
आज वो हीं मुझे समझाने निकले ं
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वो कहते थे की हम ही है सिर्फ दीवाने उनके.
जैसे ही महफिल मे आयीं वो,कई और दीवाने निकले.
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हम समझतें थे दिल के हर जख्म सुख चूकें है..
टीस जो मारतें हैं वो जख्म पुराने निकलें
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बंद कर रखा था मैने मयखाना जाना..
उनके आँखों मे देखा तो कई मयखाने निकले.
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रिश्तों के पीछे भागने की आदत सी थी मेरी.
पर कई रिश्तें अपने होकर भी बेगाने निकलें
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सुना है उनके मुहल्ले मे मय की दरिया बहता हैै..।
कुछ सोच हम भी अपनी प्यास बुझाने निकले..।
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यह जानकर भी की मुश्किल है “दरिया ए इश्क” पार करना..।
हम भी पागल दीवाने थें जो इसे पार करने निकलें..।
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दम निकलने तक जिंदा रखा हमे.
दुश्मनों से थोड़ा वो कम निकले
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ओढ रखा था मैने जाने कितने गमों का चादर.!
फिर भी जाने क्या सोच सिलवाने वो कफन निकले.!
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निकले थे सफर मे खुद को तन्हा हीं मान कर,
राहे सफर मे कई चेहरे जाने पहचाने निकले
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वो रुठें रहें हमारा सबकुछ छीन कर..।
हम अपना सब कुछ खोकर उन्हे मनाने निकले.।
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बंद कर देना मेरी इन पलकों को मेरे मरने के बाद.
कहीं मेरे कातिलों मे उनका भी चेहरा न निकले.
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रहता था जिनसे रौशन घर का आंगन
आज वो ही दीपक बुझाने निकले.
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साँसे रोक कर बैठे हैं हम कब से,
माझी मेरा आए तो दम निकले ….।
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विनोद सिन्हा-“सुदामा”