“शायरा सँग होली”-हास्य रचना
एक शायरा, आ गईं, ले हाथों मेँ, रँग,
बेल-बाटम पहने, मगर, कुर्ता था कुछ तँग।।
जोगी जी भी क्या करें, चढ़ी हुई थी भँग।
भले उम्र थी हो चली, पर दिल से थे यँग।।
ना तो कविता सूझती न ही बना कुछ व्यँग,
उर मेँ पर बजने लगे, वीणा, झाँझ, मृदंग।।
घरवाली ने देख जो, लिया शायरा सँग,
भरी बाल्टी झोँक दी, रह गए हम भी दँग।।
पल भर मेँ ग़ायब हुई, “आशा” भरी तरँग,
अब टालें भी किस तरह, होने वाली जँग।।
मित्र मँडली, आ गई, हुआ ख़ूब हुड़दंग,
गुझिया, पापड़ सँग हुआ, पर था अन्त प्रसँग..!