शायद यही लाइफ है
मैं खुद शब्द गढ़ता हूं, मैं खुद भाव बनाता हूं
अपने लिखे गीतों की खुद धुन बनाता हूं
फिर हर धुन पर थिरक कर
मैं खुद का जश्न मनाता हूं
मैं मानता हूं कि आप भी ऐसा कर पाएंगे
क्योंकि मेरा हर परमाणु उतना ही अच्छा है जितना तुम्हारा
मैं जब भी अन्न ग्रहण करता हूं
तो उसे भी आमंत्रित करता हूं जिसने मुझे बनाया है
मेरे शब्दकोश में उसका शुक्रिया करने के लिए शब्द नहीं है
मगर फिर भी प्रयास करता हूं कि
कुछ नए शब्द गढूं उसकी तारीफ में
जिसने मेरे किरदार को अपनी हथौड़ी और छैनी से तराशा है
मैं मानता हूं कि मेरे शरीर का कण कण
पांच तत्वों से मिलकर बना है
और यह भी मानता हूं कि एक दिन यह जर्जर शरीर
पांच तत्वों में विलीन होकर तुम सबको अलविदा कह देगा
उस जननी का कर्ज भला कैसे चुका पाऊंगा
जिसने अपने हिस्से का अन्न खिलाकर
मुझे नौ मेहीने अपनी कोख में रखा, पाला पोषा
और अनगिनत वेदनाओं को सहकर मुझे इस धरा पर उतारा
मां ने नारी बनकर अपनी आंचल की छाया में
नरम बाहों में खिलाकर मुझे जीने का हुनर सिखाया
तो पिता ने लौह पुरुष बनकर अपना फर्ज निभाया
अपने कंधों पर मुझे झुलाकर आसमान को झुकाया
मेरी उंगली थाम कर आंधी और तूफान से लड़ना सिखाया
मैं मानता हूं कि हर क्षण
वक्त की रफ्तार के साथ मेरी भी उम्र घट रही है
अपनों को कभी समझ ना सका
बचपन के रूठे यारों को कभी मना न सका
शायद जितने की जरूरत थी उतना में कर ना सका
फिर भी बेपरवाह होकर अनवरत मैं चलता रहा
मैं मानता हूं कि प्रकृति के आदेशों का पालन करते हुए
यहां मौसम भी अपना मिजाज बदलता है
ऋतुएं भी समय-समय पर अपना रंग बिखेरती हैं
कभी ऋतुराज बसंत का आगमन
कभी आषाढ़ की रिमझिम बूंदों का मचलना
तो कभी पतझड़ में सूखे पत्तों की खनखन
अंत में परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है
और परिस्थितियों के अनुसार खुद को बदलकर
मैं खुद को भी अक्सर सहज पाता हूं
जिंदगी के अंतिम पड़ाव में आज जान पाया
कि शायद यही लाइफ है