शाम सुकूँ है ~~~
एहसासों की बहती हुई नदी के किनारे,
पथरीली ज़िन्दगी की ज़मी पर बैठकर,
एकटक देखता हूँ उस आसमान को,
जो कभी सुनहरे, कभी गुलाबी से रंग में,
रंग जाता है, उस डूबते सूरज के संग में,
और मेरे मन के विचार जो अनसुलझे हैं,
वक़्त के साथ सुलझते से जाते हैं,
ये नज़ारा लगता, एक हमसफ़र सा क्यूँ है,
इस शाम में ठहरने का एक, अजीब सा सुकूँ है ।
©ऋषि सिंह “गूंज”
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