शादी और समाज।
शादी तो बस एक रिवाज़ है,
”बंधन” है जिसका आधार,
सात जन्मों-सात फेरों की,
ये बातें हैं निराधार,
जन्मों का ये बंधन अगर,
होता इतना ही कमाल,
तो इस दुनिया में दूसरी शादी की,
ना होती एक भी मिसाल,
प्रेम हो या व्यवस्था विवाह,
हर शादी पर है सवाल,
अनमनी उम्मीदों के बोझ से ज़िंदगी,
खो बैठती है अपना जमाल,
गहरी वजह कोई दिखती नहीं,
कि क्यों करनी चाहिए शादी,
मायने इसके समझने में ही,
उम्र बीत जाती है आधी,
लोग कहते हैं कि शादी करो,
कि शादी से बढ़ता वंश है,
असल में शादी शादी नहीं,
बस खोखली परंपराओं का दंश है,
जाने कितनी शादियां हुई,
कि क्या कहेगा समाज,
रिश्ते पे किसी के जब भी कहीं,
गिरती है कोई गाज,
तमाशा देखता रहता है,
तब यही ज्ञानी समाज,
ना जाने कैसे इस शादी से,
जुड़ी है लोगों की प्रतिष्ठा,
प्रेम विश्वास तो दूर की बात,
जब निश्चित ही नहीं है निष्ठा।
कवि-अम्बर श्रीवास्तव