शहर में मलिन बस्ती ।
एक नन्हा दोस्त रहता है,
मलिन बस्ती है वो मगर,
झुग्गी और झोपड़ी से बनी ,
सस्ती-सी एक कश्ती-सी है वह,
फ़िर भी वह मिलता मुझे,
पहने चीथड़े पुराने फटे,
सजा कर रखता ना जाने,
हँसी ओठों में अपने हर पल,
शोर-गुल और गुलामी के बीच,
ढ़ोता रहता कचरे को गाड़ी में वह,
बचपन अधूरा उसका,
किस्सा उसके जीवन का हिस्सा है,
शिक्षा दिखती है जिधर,
नामुमकिन-सा वो डगर,
गरीबी देखी करीब से तो,
भूखे बस्ती सब सोती सजग,
पीते थे जल जीने को अशुद्ध,
भोजन बीमारी की बनी जड़ ,
मलिन-सी वह बस्ती,
जीवन की किरन अधूरी दिखती,
लाखों करोड़ो को ऐसे,
हालत में जीना एक मजबूरी बनी,
समाज का वह एक हिस्सा है ,
मलिन बस्तियाँ शहरों में बसते है,
ढ़ोता था जो कचरा,
कचरा उसकी जिन्दगी बनी,
जागो देखो उस नीचले हिस्से को,
ईमारतों के नीचे खड़ा है वह,
मलिन तो हो सब भी,
दोस्ती के काबिल अगर न हो,
साथ अगर दे दो,
जिन्दगी तब्दील उन सब की होगी।
रचनाकार-
बुद्ध प्रकाश,
मौदहा हमीरपुर।