शहर में गांव को ढूढ़ रहा हूँ
ढूंढ रहा मैं आज शहर में, अपना गाँव नवापुरा को।
खेल कूद कर बड़े हुए वह, नीम वाली छाँव।
कैसे हँसती थी सब गलियां, मीठा था वह शोर।
प्रथम पहर वह कसरत वाली,याद रही वह भोर।
गिल्ली डंडा खेल कबड्डी, कुश्ती से था प्यार।
अटकन चटकन दही चटाकन, थी अपनी सरकार।।
दंगल में बुधई काका ने, दिये कई थे दाव।
ढूंढ़ रहा मैं आज शहर में, बचपन का वह गाँव।।
पीपल बूढ़ा बाग बगीचे, कोयल की वह कूक।
शहरों में है शोर बहुत पर, लगते हैं सब मूक।।।
पंगत की रंगत हम भूलो,भूले पुरैन पात।
डैडा में उलझे हैं सारे, भूल गए सब तात।।
चमक दमक पहचान शहर की, रिक्त पड़े हैं भाव।
ढूंढ रहा मैं आज शहर में, अपना गाँव नवापुरा को।।
दादा – दादी, चाचा – चाची, हरा भरा परिवार।
यहाँ शहर में एकल रिश्ते, शुष्क लगे व्यवहार।।
नाना- नानी, भैया, ताऊ, हर नाता अनमोल।
संबंधों का अर्थ के बल पर, कौन लगाये मोल?
सम्बंधों के नाम शहर अब, नित्य नया दे घाव।
ढूंढ रहा मैं आज शहर में, अपना गाँव नवापुरा को।।
शंकर आँजणा नवापुरा धवेचा