शरीर और आत्मा
पार्थ !
बिना अवसर के शोक क्यों ?
और प्रारम्भ हुआ
‘गीताशास्त्र’ का अद्वितीय उपदेश-
‘गतासु’- मरणशील शरीर और
‘अगतासु’- अविनाशी आत्मा के लिए
शोक क्यों ?
‘आत्मा’ नित्य है और सत्य भी,
वह अप्रमेय है
मुक्त है-
जन्म-मृत्यु के बन्धन से
वह न जन्मता है और न मरता है
अविनाशी है.
फिर-
मोहित हो धर्मयुद्ध से पृथक् क्यों ?
शोक क्यों ?
वांसासि जीर्णानि यथा विहाय…..
अर्थात्
पुराने वस्त्रों का त्याग व नए को धारण करना
यही तो है ‘आत्मा’ की भी प्रकृति
जर्जर शरीर का त्याग व नए में प्रवेश.
यह क्रम चलता रहता है,
चक्र की भाँति
क्रमशः
…
‘आत्मा’
अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य है
जन्मे की मृत्यु
और मृत्यु प्राप्त का जन्म अटल है.
महाबाहो !
फिर शोक क्यों ?
यह धर्मरूप संग्राम है
इससे पृथक् होना
‘अकीर्तिकी’ को मार्ग प्रशस्त करेगा.
पार्थ !
‘अकीर्तिकी’
प्रतिष्ठित के लिए
अधिक कष्टकारी है
‘मृत्यु’ समान
हे कुरूनन्दन !
सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय
सबको समान समझ
युद्ध का वरण कर.
…..
धनंजय !
अधिकारिता है ‘कर्म’ पर
‘फल’ पर कहाँ ?
सिद्धि व असिद्धि की समता
‘योग’ को परिभाषित करता है
पार्थ !
‘स्थितिप्रज्ञ’ हो
अर्थात्
आत्म स्वरूप के चिन्तन में मग्न हो
समस्त कामनाओं को त्याग.
दुःख में उद्वेगरहित
सुख में स्पृहारहित
राग, भय व क्रोध से रहित
‘मुनि’
‘स्थिरबुद्धि’ कहलाता है.
प्रबल होती हैं-‘इन्द्रियाँ’
बुद्धिमान के मन का भी
हरण करने में सक्षम
पर ‘स्थिरबुद्धि’
इन वाचाल इन्द्रियों को ही
वश में कर लेता है
वह सक्षम है
ऐसा करने में.