शरद काल
निशा से चला –
सारें दिशाओं से चला ;
पाला लिऐ पवन ,
ठिठुर रहा रज़ाई –
सारी रात –
ठिठुर के रज़ाई में लूँ अँगड़ाई ।
जल्दी से उठो सूरज भाई –
रात भर जग –
ठिठुर कर सोया हूँ ,
हो गया भोर –
आग तापते वहाँ – वहाँ ;
आग जले जहाँ – जहाँ ,
काम सब छोड़कर –
वार्तालाप में जोड़कर ,
बेला बीताते सब –
भाई तू दमक – धमक से चमकेगा कब ,
हो गया भोर –
दुनिया को मत बना कामचोर ।
ठिठुरा रात भर –
रज़ाई से गहरा नाता है ,
रज़ाई को नही छोड़ना –
सोने को भाता है ,
उठा मैं ने जिस पल –
देखा नव पल्लव पल ,
डालियाँ – कलियाँ – पुष्प कोमल ;
पाला उस को संकट में डाला ,
आ गये हैं सब के अंत काल ,
भयावह है शरद काल ।
रहे नहीं पुष्पों में मुस्कान –
निकल रहे प्राण ;
बाप रे कितना ठंडा –
कैसी शरद काल ,
मैं ही अपना डालूँगा –
पुष्पों में प्राण ,
पुष्पों से जग को जगमगा दूँगा ,
काँटों से प्रेम अमृत सींच दूँगा ,
यही हैं अभिलाषा हमारा –
पुष्पों से चमके जग सारा ।
पुष्पों की कोमल पंखुड़ियों में –
मैं अपना उर की कविता लिख दूँगा ;
खिले पुष्पों की सुगंधित में –
तुकांत में छंद में ;
होगा लिखा कविता हमारा ।
पुष्पों ने हँस के बोली –
उर में छिपी अभिलाषा खोली ,
चाहे जितनी भी हो सुरबाला –
ना बनूँ गूँथ के उसकी माला ;
भले हो आशिकों की जोड़ी ,
हो कितनी भी प्यारी –
हे प्रेम प्रिया !
ना बनूँ इज़हार की जरिया ,
भारत माता के लिए –
गये प्राण जिनके –
चरणों को पूजू हँस के ,
गले में चढ़ूँ बन के माला ;
डालों से तोड़ लेना –
वीर शहीदों के सजदा के लिए ;
डाल से टूट के –
भले चले जाये मेरा प्राण ।
रतन किर्तनिया
पखांजूर
जिला :- कांकेर
छत्तीसगढ़