शब्द
शब्द
जब मैं शब्दों के बीच होती हूँ
अकेली नहीं होती
साथ चलता है समय
आकाश के संग धरती
इन्द्र धनुषी हो जाती है
शब्द रिश्ते-नाते, दोस्ती-संबंध
सब निभाते हैं
शब्द अपनी संवेदना-सरोकारों में
करुणा बरसाते हैं
शब्द अपने अनेक अवतारों में
उज्जाला फैलाते हैं
कभी अपनी भंगिमाओं से
दु:खी भी कर जाते हैं।
शब्द जब.बन जाते हैं प्रेरणा
मैं एकाएक उठ कर
फलांगने लगती हूँ
नहीं देखती तब
रास्ते में पड़े पत्थर
झाड-झंखाड़, नुकीले कांटे
पर्वत की चोटियां
कितनी भी हो दुर्गम
सब लांध जाती हूँ ।
कामना यहीं है
बना रहे शब्द का साथ
जैसे सागर में उर्मि,
जैसे बादल में जल,
जैसे सुमनों में सुरभि,
जैसे कान्हा की मुरली
जैसे उषा की किरण
शब्द ही ब्रह है
गंगा-यमुना-सरस्वती की तरह
संवेदना-कल्पना-सृजन का संगम
शब्द की सत्ता को नमन
शब्द की सत्ता को नमन…….