शंकर हुआ हूँ (ग़ज़ल)
एक सागर था कि अब पत्थर हुआ हूँ ।
कौन जाने क्या से’ क्या अंदर हुआ हूँ ।।
जब स्वयं को जान कर ढाला स्वयं में ;
तब सभी की सूझ से बाहर हुआ हूँ ।
तुम गरल-संचय से’ विषधर हो गए हो ।
मैं गरल का पान कर शंकर हुआ हूँ ।।
जिंदगी हर पृष्ठ पर नीरस रही थी ;
आज अंतिम पृष्ठ से रुचिकर हुआ हूँ ।
राहुल द्विवेदी ‘स्मित’