((( वज़ूद )))
ये कैसी ज़िन्दगी जी रहे है हम ,
इसमे ज़ीने जैसा कुछ भी नही ।
सब अपना वजूद खोजते रहते है मुझमे ,
जैसे मेरा अपना कोई वज़ूद ही नहीं ।
जो किया सब की खुशी के लिए किया ,
मेरी अपनी भी खुशी है , ये कभी सोचा भी नही ।
जो चुप रह के सह लू हर अत्याचार तो भली ,
जो खोलू ज़ुबा तो हमसे बुरा कोई भी नहीं ।
दुसरो की ख्वाहिशो के बोझ तले दबे है इतने ,
अपनी कभी कोई ख्वाईश हुई ही नहीं ।
सब ने ऐसा कुचला है मेरे अस्तित्व को ,
जैसे मैं पत्थर हूँ , कोई इंसान ही नहीं ।
एक एक सांस आज बेबस और गिरवी लगती है ,
क्या करूँ इस धड़कन का ,जब मेरी रूह ज़िंदा ही नही ।