वक़्त-बेवक़्त कुछ भी
वक़्त -बेवक़्त कुछ भी
लिख दिया करता हूँ
कभी अपने जख्म तो
कभी मरहम लिख दिया करता हूँ
कभी मन की आशा तो
कभी कुंठा लिख दिया करता हूँ
कभी प्रेम का प्याला तो
कभी विरह का जहर पी लिया करता हूँ
कभी टूटती बैसाखी तो
कभी मोतियाबिंद वाली आंखे देख लिया करता हूँ
जज्बातों के बाजार में
खुद को खरीद-बेच दिया करता हूँ
मैं अक्सर भीड़ में खुद को
अकेला कर लिया करता हूँ
ज़िन्दगी की उलझने लिखते -लिखते
अक्सर मय्यत के इंतज़ार का जिक्र कर दिया करता हूँ
वक़्त-बेवक़्त कुछ भी
लिख दिया करता हूँ–अभिषेक राजहंस