व्याध सा आदमी
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कथन से विपरीत सोचता है मन यदा-कदा।
सोचता जो कहता नहीं आदमी सदा,सर्वदा।
मन में मनुष्य के रहता है हिंस्र सिंह
बकरी सा मिमियाता है स्वार्थ वास्ते।
मनुष्य की नियति ऐसी ही है।
मन में रहता है आग्रह, करता है अनुरोध।
यह शिष्टाचार है धूर्तता या नीयत !
आदमी नाटक का हिस्सा है
नेपथ्य और मंच पर अलग।
स्वार्थ मष्तिष्क के पिछले हिस्से में हो न हो
आँखों के सामने होता अवश्य है।
स्वार्थ चुक जाय तो आदमी सन्यास सा
एकाकी।
जिन्दगी में नहीं रहता जीवंतता बाकी।
भूख और प्यास की डुगडुगी पर
बंदर सा नाचता है आदमी।
मनु के कहने से
अत्यंत सूत्र,सिद्धान्त,आदर्श,विधि,नीति बाँचता है आदमी।
कसौटी बनाकर इसे खुद को जाँचता है आदमी।
मनुष्य अपने ही अस्तित्व के बहस में
स्वयं प्रतियोगी रहता है पूरी जिन्दगी।
तर्कों को नग्न देखता हुआ जो जीता है
वह होता है उसकी अधूरी जिन्दगी।
आदमी यक्ष होता प्रसन्न होता शायद!
आदमी वन्य होता प्राकृत होता शायद।
बुद्धि एवं विवेक के बाद भी आदमी कितना !
असत्य है।
परेशान है मनुष्य सोचकर कि आदमी में
बचा कितना! आदमियत सा तथ्य है।
कितने अध्ययन कक्षों के अध्याय पढ़े।
कितने व्यूह रचनाओं के रण गढ़े।
योनियों में जन्म ले लेकर आदमी
जीवन के हर रहस्यों को ग्रहण किया।
अंतत: आदमी का जीवन संपूर्णता में जीने को
आदमी के योनि में प्रवेश और भ्रमण किया।
आत्मा आदमी है,आदमी आत्मा है किन्तु,आदमी
जीता आया दुरात्मा के संस्कार है।
प्रकृति वरदान है, वर किन्तु, आदमी ने
वरमाला सा बांटा है, कितना! अँधियार है।
वर का हक सभ्यता का हक है ।
किन्तु, सभ्यता में जो संस्कृति है
वह असमानता हेतु बहुत व्यग्र है ।
आदमी अपनी परिभाषा को आजतक नहीं कर पाया है परिभाषित।
तय नहीं कर पाया है वह कि सृष्टि का शासक बने या ब्रह्म-शासित।
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