व्याकुल दर्पण की गुहार।
सिसक-सिसक कर रोया दर्पण,
रूप देखा जब पहली बार,
सुंदरता की लेती थी बलैया,
करती थी सुंदर श्रृंगार।
सुंदर काया देख न पाया,
दर्पण ने बखूबी बताया,
मुस्कुराती थी इतराते हुए देख,
लगाती नैनो में काजल की लेख।
मुझ-सा सुंदर मेरा प्रतिबिम्ब,
दर्पण बोली भ्रम का है अंश,
बच कर रहना मुश्किल है यूँ जीना,
पुष्प का पराग भौरों ने छीना।
सामाजिक होता दुष्कर्म,
नजरों से चीरता है अंग,
बुरी नियत हैवानी सोच,
बच न सकी सुंदर नारी आज।
पीड़ा तेरी देखी न जाती,
दर्पण हूँ लेकिन झूठ न बताती,
कैसे ना रोऊँ असहाय हई आज,
दिखा नहीं सकती सुंदर प्रतिबिम्ब संग श्रृंगार।
व्याकुल दर्पण कैसे मुस्कुराये,
कौन नारी को इस भय से बचाये,
अत्याचार सहती न्याय की लगाए गुहार,
प्रतिबिम्ब नहीं वास्तविकता है आज।
रचनाकार-
बुद्ध प्रकाश,
मौदहा हमीरपुर।