“व्यथा… रचनाकारों की”,
“व्यथा… रचनाकारों की,
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रचनाकार बनने की चाहत और व्यथा,
इक पथ पर दोनों संग-संग चलते जीवनभर।
हर रचनाकार की होती है कोई मजबूरी,
कोई सेवानिवृत्त हो रचना करने की ख्वाहिशें रखता,
तो कोई पत्नी की चिक-चिक से बचने को,
अनगिनत ख्वाब यहां रचता…
कोई गम का मारा बेचारा ,
बीते दिनों की याद में रोता ।
कोई प्रशस्ति पत्र को बेचैन यहां,
दिन- रात एक किए रहता।
जीवनपथ तो घरेलू दुश्वारियों से गुजरता,
हकीकत में न सही,वह तो स्वप्नलोक में ही विचरता…
हास्य- रस के सृजनहारों की,
तो कुछ पूछ भी है, इस जग में,
बचे-खुचे को सुनता ही नहीं,कोई महफ़िल में।
क्षणभंगुर खुशियों को,समेट ले दामन भरकर,
जीवन में ऐसी भी कोई बात नहीं होती।
सम्मानों से भरी परी झोली,
कफन में भी साथ नहीं देती।
बस शब्दों के मायाजाल में ही जीवन उलझता…
प्रेमचंद और रेणु की,
ड्योढी को देखो अतीत में जाकर।
क्या व्यथा-वेदना रही होगी ,
देश के इन मूर्धन्य रचेताओं की।
बदहाली में तड़प-तड़प कर,
चार कंधो पर अर्थी उठी होगी ।
फिर भी सृजन की इस महफिल में कोई साज़ नहीं सुलगता…
फिर भी सृजन की इस महफिल में कोई साज़ नहीं सुलगता…
यही है रचनाकारों की व्यथा………
मौलिक एवं स्वरचित
© *मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – ०९/०६/२०२१
मोबाइल न. – 8757227201