व्यक्तिवाद की अजीब बीमारी…
देश औ समाज को लग चुकी है
व्यक्तिवाद की अजीब बीमारी
ऐसे में भला कोई कैसे ग्रहण कर
सकता है सचमुच में जिम्मेदारी
लोकतंत्र से अरसे से गायब
है जिम्मेदारी का अहसास
खामियाजा भुगतने को विवश
आज हर आदमी जो नहीं खास
लोकतंत्र के तीनों अंगों में कहीं
धरातल पर नहीं कोई तालमेल
आम आदमी को दशकों से कैद
किए समस्याओं की जटिल बेल
अर्थव्यवस्था गर्त में पर नेताओं
की सेहत पर तनिक नहीं फर्क
वे जुमले गढ़ पेश करते रहते हैं
जनता के बीच में अजीब तर्क
जहाँ व्यवस्था के लिए घातक
बन जाएं उसके ही पहरेदार
फिर उस देश औ समाज की नैया
कैसे करेगी मुश्किलों की नदी पार