व्यंग्य- बुंदेलखंडी बोली में
व्यंग्य- बुंदेलखंडी बोली में
✍? अरविंद राजपूत ‘कल्प’
रे मेढ़क जैसे मत टर्राओ,
उछलकूंद ने ख़ूब मचाओ।
वे-मौसम तुम टर्ररा रह हो,
सींढ़ पाय के गर्रा रह हो।।
जुगनू हो जुगनू बन रहिओ,
सूरज को ने चंदा कहिओ।
अपनी ही औकात में रहिओ,
ग़लती हो गई फिर मत कहिओ।।
नेम कायदा जो ने माने,
खुद को देखो गुरु वो जाने।
रे मूरख जा तेरी नादानी,
कर रओ तू अपनी मनमानी।
बकबक कर रओ अज्ञानी वो,
शांत जो बैठा है ज्ञानी वो।
लड़ैया मिलकर चिल्ला रह हैं,
देख शांत शेर को गुर्रा रह हैं।।
सरस्वती के तुम हो साधक,
वाह वाही बनती है बाधक।
पढ़-लिख अपनो ज्ञान बढ़ाओ,
नियम छंद के तो अपनाओ।।
कहते रहे हम ग़ज़ल अब तक,
व्यंग्य विधा हम लिख हैं जब तक।
खग की भाषा खग हे समझा रह
खल मण्डली हे सबक सिखा रह।।
✍?? अरविंद राजपूत ‘कल्प’?✍?