व्यंग्य क्षणिकाएं
तन ने बाजार
में
कीमत लगाई
हाथों-हाथ
बिक गया।।
मन तो पागल
था
बिना कीमत
लुट गया।
2
सभ्यताओं के
स्टॉल पर कोई
नहीं आता
क्योंकि यहाँ
तमाशा नहीं होता।
3
उधार की संस्कृति
कब तक चलेगी..?
जब तक जाने जहाँ
यह बहार चलेगी।।
4
अंदर से कुछ
बाहर से कुछ..हो
यह सियासत भी..
मियां!
कहॉं से कहाँ
पहुँच गई।।
5
सब नाच रहे हैं
तुम भी नाच लो
अस्मिता ने घूंघट
छोड़ दिया है।।
सूर्यकांत द्विवेदी