वो_घर
#वो_घर
“वो घर जहां कभी धूल का
एक कण भी नहीं होता था,
अब वहां धूल की
एक चादर बिछी रहती है
जहां सदा गूंजती थीं
हिलकोरों की आवाज़ें,
अब वहां बारहों मास
घोर सन्नाटा पसरा रहता है
वो किवाड़ जो हमेशा
अपनी बाहें खुली रखते थे,
अब उन दरवाज़ों पर
कोई आहट नहीं होती
घर के बच्चे नौजवां हो
अब दूर कहीं परदेस में रहते हैं,
और उनकी राह तकते–तकते
बुज़ुर्ग अब किसी और लोक”