वो ग़ज़ल सबके सामने कभी गाता नहीं हूँ
वो ग़ज़ल सबके सामने कभी गाता नहीं हूँ
जो सुनाई थी तुम्हें सबको सुनाता नहीं हूँ।
दरिया के ठीक किनारे पे बना है मेरा घर
मगर मैं तेरे ख़त उसमें कभी बहाता नहीं हूँ।
वो बगीचा हमेशा इल्तिज़ा करता है मगर
तेरे जाने के बाद तन्हा वहाँ जाता नहीं हूँ।
अनगिनत मर्तबा टुटे हैं मेरे दिल के भरम
ये अलग बात है मैं बात ये बताता नहीं हूँ।
इब्तिदा से ख़ुदको मैं पढ़े जा रहा हूँ पर
मैं हूँ कि मुझको ही समझ आता नहीं हूँ।
मैं हर एक बात को लम्हों में भुला देता हूँ
सिर्फ़ मैं बात की वजह को भूलाता नहीं हूँ।
जॉनी अहमद ‘क़ैस’