वो संख्या में चंद हैं
की पते की बात तब कहने का ढंग है
बांट दी खुशियां तभी होली का रंग है
जब आएं मस्तियां तो मौसम बसंत है
पड़ती फुहारों में अठखेलियां अनंत है
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प्यार की सीमाएं कभी होता न अंत है
यह सभी बंदिश और बंधनों से मुक्त है
कुछ सुंदर सा बोलिए ज़ुबां क्यो तंग है
दीजिए कर विदा इस दुनिया से जंग है
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नदी पहाड़ जंगल तो जीवन के अंग है
हम होते गए हैं दूर न प्रकृति का संग है
साथ इनके रहो तो खूब बढ़ता उमंग है
जीवन में तभी मिलता सच्चा आनंद है
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कह रही यह दुनिया मेरी बुद्धि तो मंद है
खुशहाल होने के लिए दरवाजे तो बंद है
यहां कुछ ही तो जानकर और हुनरमंद हैं
जो कर लिया कब्ज़ा वो संख्या में चंद हैं
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इस साज़िश में दिखे जिसकी भी गन्ध है
घर उसी के भाग्य का पिटारा क्यों बन्द है
भूखा जो सोया उसके तो हौसले बुलंद है
उसे अभी लड़ना पड़ेगा एक और जंग है
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अमन-चैन जिनको नहीं बिल्कुल पसंद है
होते गए दुश्मन वही और अब लामबंद हैं
बता रहे उनको मसीहा जो हथियारबंद हैं
बोले जो देश के लिए मुंह उनके तो बंद हैं
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– रामचन्द्र दीक्षित ‘अशोक’