वो लोग कहाँ खो गए
मकानों का ऐसा जंगल बना
लोग अपनों से बिछड़ गए
वो लोग नजाने कहाँ खो गए
जो जुगनुओं की रौशनी ढूँढा करते थे
जो तितलियों के पंखों में रंग भरते थे
पतंगों की उड़ान पे आँखें टिकाते थे
जो पेड़ों पे चढ़के फल तोड़के खाते थे
वो लोग नजाने कहाँ खो गए
जो हर इतवार को जश्न मनाते थे
जो पुरानी फिल्मों के गाने गाते थे
जो हर छोटी सी बात पे मुस्कुराते थे
रोते हुओं के चेहरों को हँसाते थे
वो लोग नजाने कहाँ खो गए
जो अच्छी बातों की सीख दे जाते थे
गुस्सा आने पे खुद ही चुप हो जाते थे
बूढ़े-बुजुर्गों को सड़क पार कराते थे
औरों के ग़म में अपने आंसू बहाते थे
वो लोग नजाने कहाँ खो गए
जॉनी अहमद ‘क़ैस’