बरसात की वो मनहूस रात ( अमर गायक स्व मोहम्मद रफी साहब की की याद में)
कैसे भूल जाएं बरसात की वो रात ,
हमने नहीं देखी थी कयामत की रात ।
कोई शख्स मौत से जंग हार रहा था ,
उसकी जिंदगी की थी ये आखिरी रात ।
निगल गई उसका चांदनी सा जीवन,
कैसी थी वो हाय !अमावस की रात ।
कुदरत को तो एहसास हो चुका था ,
क्या कहर बरपा चुकी है उसकी रात ।
कुदरत रो पड़ी इस गम में जार जार,
उसके कीमती फूल छीन ले गई रात ।
जो उसके गुलशन की आन बान था,
उसकी उसी शान खा गई काली रात ।
खुदा के खजाने का अनमोल हीरा था,
कोहिनूर था वो सबसे उम्दा जवाहरात।
जाने किस लोक से आया था मुसाफिर ,
धरती पर गुजारने आया था कुछ लम्हात ।
इंसान के वेश में देवता सा दिखता था ,
हर इंसा के लिए थी दिल में मुहोबत।
इस धरती के टूट हुए,गमजदा लोगो को ,
संगीत के मय से पिलाने आया था अमृत ।
मुख पर सद्गुणों की चमक झलकती थी।
लबों पर मधुर मुस्कान,आंखों में शराफत ।
खुदा का बंदा था उस पर रखता था ईमान ,
हर सांस में,हर पल करता था उसकी इबादत ।
मजहब और जाति की दीवारों को लांघकर,
उसने अपनाया सदा मजहब ए इंसानियत ।
ऐसे फरिश्ते को जिसे कहते है स्वर सम्राट,
बेदर्दी से छीन ले गई बरसात की काली रात ।
मगर यह सच है जब तक रहेगी यह कायनात,
जहां में रोशन रहेगा उसका नाम ता कयामत ।