वो भी क्या दिन थे!
वो भी क्या दिन थे,
लगा रहता था घर पर मेहमानों का आना-जाना प्रतिदिन,
कब कौन सा मेहमान आ जाए,
कब कौन सा चलने को कहे,
कौन रुकेगा कितने दिन,
ना कोई कुछ कहता था,
ना कोई दिन गिनता था,
जब जिसकी इच्छा होती,
जाने पर ना कभी चर्चा होती,
साथ में खाते, साथ ही सोते,
मिलकर घर का काम बंटाते,
साथ ही जाकर नहाते धोते,
अदल बदल कर पहनते कपड़े,
अदल बदल कर उनको धोते,
मां-चाची या बड़ी भौजाई,
रोटी बेलकर हमें खिलाती,
एक और खाले एक और खाले,
जबरदस्ती थाली पर डालें,
अपने पन का वह दौर कहां रह गए,
वो भी क्या दिन थे!बस यही याद भर रह गया!
दुःख बिमारी की ना कोई चिंता थी,
सब की निगाह उस पर रहती थी,
जिसे कभी कोई व्यथा हुआ करती थी,
सब मिलकर के इक्कठा,
करते आपस में ही हंसी ठठ्ठा,
खेल कूद कर, उछल फांदकर,
खाए हुए को हम यूं पचाते,
दाल भात,दही और मठ्ठा,
मां चाची दीदी, और भौजाई,
आलस्य कभी ना सामने लाई,
जब भूख लगे तभी मांगा करते थे,
वो भी क्या दिन थे!बस यही याद भर रह गया!
बड़े बुढ़े यह कहा करते थे,
खाना इतना जरूर बनाएं,
घर के सब जब खाना खा जाएं,
बर्तन तब भी खाली न रह जाए,
आने जाने वाले को पुछ लिया करते थे,
घर पर आए हुए मुस्साफिर,
बिन खाए नहीं जाया करते थे,
वो भी क्या दिन थे! जब हम सब एक हुआ करते थे!
ज्यों ज्यों हम बड़े हो गए,
गांव घर से दूर हो गये,
पहले पढ़ने लिखने को गये,
फिर नौकरी की चाहत में बाहर के हो गए,
रोजी-रोटी कमाने,लग गये जब आने जाने,
परिवार सीमट कर बीबी बच्चों का रह गया,
मेहमानों का आना-जाना भी बंद हो गया,
रहने को मुस्किलों से मिलता ठिकाना,
एक दो कमरों में पड़ता काम चलाना,
तब कैसे करे कोई आना जाना,
समय के साथ सब कुछ बदल गया,
संयुक्त परिवार अब एकल हो गया,
दुःख दर्द से भी नाता ना रहा,
रिश्तों की मिठास का भी जायका बदल गया,
अब किसी को साथ रखने से भी हैं कतरा रहे,
मिलते हैं तो टरका रहे,
धीरे धीरे सब कुछ बदल गया,
बच्चों ने परिवार को जकड़ लिया,
अब कमान उनके पास आ गई,
जिन्होंने परिवारों में रिश्तों की गर्माहट ही नहीं देखी,
उन्होंने अपने को अपने छोटे से ज़हान में समेट दिया,
रिश्तों की इन्हें पहचान ही ना रही,
अब रिश्ते निभाने की पंरपरा ही हट गई,
दूर से ही रिश्ते निभाने लगे हैं,
घर द्वार भी अब कम आने लगे हैं,
घर के बुजुर्ग अब अकुलाने लगे हैं,
वो भी क्या दिन थे,
बस इन्हीं यादों में समय बिताने लगे हैं!