वो बरगद का पेड़
क्या तुम्हे याद है , वो बरगद के पेड़ की छाँव ।
जहां मजमा लगाने आ बैठता था पूरा गांव ।
जहां त्योहारों की खुशियां मनाई जाती थी।
जहां वैद्य जी और कंपाउंडर साहब की दवाइयां सुलभ हो पाती थी ।
जहां थके – हारे राहगीर को बरगद की ठंडी छांव खीच लाती थी।।
जहां की हर डाली पर खुशियों से चिड़िया कितनी चहचहाती थी ।
जहां भवरे और मधुमक्खियां अपनी फूलों के रस से सराबोर होकर अपने घरों को सजाते थे ।
जहां बच्चे बरगद की टहनियों पर खेलते नहीं थकते थे।
जहां सावन में बरगद की डाली झूलों की हार से सज जाते थे ।
जहां हमारी बहने झूलों पर गीतों को गुनगुनाती थी ।
जहां चैता , और होरी के पारम्परिक गीत गए जाते थे ।
जहां देश-दुनिया और राजनीति पर घंटों चर्चे होते थे ।।
जहां वह मिट्टी की दीवार भी जैसे बरगद की संगिनी बने खड़ी थी ।
तभी तो मानो जैसे बरगद को सहारा दिए खड़ी थी।।
वो बरगद ना जाति -पाती का भेद करता था ,
सभी जीव को एक समान प्रेम करता था।
मानव को मानवता का पाठ पढ़ाने को ।
वो पेड़ था इंसानियत का सही राह दिखाने को ।
कोई ऐसा जीव नहीं जिसको देता न था ये आश्रय ।
तभी तो कहते हैं ,कि बरगद में बसते हैं दैव ।।
परंतु यह क्या हुआ ,इस जमाने के इंसानों को ।
मानव ने तो बाट दिया है सबको , देखो इनके कारनामों को ।
कहते ये मेरा है , ये तेरा है ,
ये तेरी भूमि , ये मेरी भूमि , भूमि पर यह पेड़ भी मेरा ।
निज स्वार्थ वश , मानव ने सब छीन लिया सुख सागर का।
थोड़ी सी सुख के खातिर छोड़ दिया आनंद सागर का।
इसी सोच में पड़ा ये बरगद, मन में बोल पड़ा ये बरगद ।
मैने तो कभी यह कहा नही की , यह मेरी डाली , पत्ता मेरा , क्यों करते तुम सब यहाँ बसेरा ।
मानवता को सब भूल गए , द्रव्यों से सब तुल गए ।
हाय ! वह कहां गया युग , जहां चलती थी रामायण की बातें ।
वह कथा भागवत की जहां राधाकृष्ण के प्रेम की होती थी बरसातें।
कहां गए वह हंसी ठिठोली , कहां गई वो नादानी ।
कहां गया वह प्रेम की बातें ,कहां गए वो कहानी ।
कहां गए वो वयोवृद्ध , कहाँ गई वो जवानी ।।
यही सोच में पड़ा वो बरगद , कभी पूछता है अंबर से , की तुम आज भी तो स्वच्छंद हीं हो तुम में तो कोई बदलाव नहीं ।
तो कभी पूछता सूर्यदेव से , की तुम तो पूर्व में उदय होते हो , पश्चिम में होते हो अस्त , तुम में भी कोई बदलाव नहीं।
तो कभी कहता , हे पवनदेव तुम तो सभी के श्वांस के स्वामि हो , तुमने भी वायु बाटा नहीं ।
फिर क्यों इन इंसानों के मन में उमड़ती प्रेम नहीं ।
मैने तो कई पीढ़ियां है देखी , अब मुझमें कोई अभिलाष नहीं ।
आओ अब काट भी दो मुझे भी ,
क्योंकि मानव तुम् पर अब विश्वास नहीं।।
रचनाकार – शिवांशु उपाध्याय