वो पगली न समझी |ग़ज़ल|
वो अन्जान बनती है ज़िंदगी का चैन चुरा के
वो दे गई हजार जख्म दिल में खंजर चुभा के
वो पगली न समझी कभी दिल का दर्द मेरा
इस आलम में छोड़ गई जाने क्यों मुस्कुरा के
क्या कहे उस बेवफा सनम को ,और कैसे जीये
यादों की निशाँ छोड़,दूर है मुझको रुला के
आंखे बन गई है झरने और ज़िंदगी है रेगिस्तान
मैं हो गया फना उस लड़की पे दिल लुटा के
उसने की थी इस अँधेरा ज़िंदगी को रौशन
वो दूर हो गई जाने क्यों इश्क की दीया बुझा के