वो जिन्दगी भी क्या,जो छाँव छाँव चली —आर के रस्तोगी
हद-ए-शहर से निकली तो गाँव गाँव चली |
कुछ सुनेहरी यादे,मेरे संग पाँव पाँव चली ||
सफर धूप का किया,तो ये तजुर्बा हुआ |
वो जिन्दगी ही क्या,जो छाँव छाँव चली ||
पता है सबको,जो पांड्वो का हश्र जुए में हुआ |
द्रोपदी की इज्जत,भरे दरबार में दाँव दाँव चली ||
रोक न सकी महँगाई,जो भी सरकारे आई |
गरीब सदा पिसता रहा,ये हर भाँव भाँव चली ||
रूक सकी न रिश्वत,ये अभी तक थकी नहीं |
ये हर जगह,हर शहर में,हर गाँव गाँव चली ||
करते है बदनाम,कौवे को जो काँव काँव करता है |
देखो ये संसद भी,हर सैशन में काँव काँव करके चली ||
आर के रस्तोगी
गुरुग्राम मो 9971006425
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