वो ज़माने चले गए
इसके घर की रोटी थी, उसके घर का अचार था
इसके घर का तकिया था, उसके घर का खाट था।
दिनभर पहले मेहनत, फिर रात सजा दरबार था
हर दिन थी दीवाली, हर दिन होता त्यौहार था।
वो दीवाने, वो मस्ताने चले गए…
वो ज़माने चले गए, वो ज़माने चले गए।
इसके घर का चूल्हा था, उसके घर की लकड़ी थी
इसके सर पे भार था, उसके तन की टंगड़ी थी।
हुई शाम गले मिल जाती, जो बहन सुबह में झगड़ी थी
जो था सबसे समझदार, बस उसके सर पे पगड़ी थी।
वो हंसी-ठिठोली, प्यारे ताने चले गए…
वो ज़माने चले गए, वो ज़माने चले गए।
शुद्ध अन्न था, शुद्ध मन था, थी शुद्ध ही बोली-वाणी
बिन मतलब के मिलते थे, आपस में प्राणी-प्राणी।
थी एक दुकान, जहाँ मिले सामान, होते थे सेठ-सेठाणी
घर का मुखिया राजा था, थी पत्नी उसकी राणी।
वो काम-काज, वो राज-पाट सब चले गए…
वो ज़माने चले गए, वो ज़माने चले गए।
अब वो ज़माना आ गया, जहाँ बिन मतलब के यारी ना
कोई किसी का प्यारा ना, कोई किसी की प्यारी ना।
Mobile से pay कर दे, अब होती कोई उधारी ना
कहे “सुधीरा” भोले की अब चलती दूकानदारी ना।
गेंहूँ की बालों से दाने चले गए…
वो ज़माने चले गए, वो ज़माने चले गए।