“वो चिडिया “
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घर वो वैसा ही है आँगन भी वही मगर, वो चिडिया अब मेरे आँगन में आती नहीं…
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मैने उसे याद किया नहीं पहले मगर, वो आती थी रोज़ाना जरुर !
आज अगर आवाज़ दूँ उसे चिल्लाऊँ जोरो से मगर, आती नहीं शायद गई वो अब कहीं दूर !
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घर वो वैसा ही है आँगन भी वही मगर, वो चिडिया मेरे आँगन में आती नही…
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उसकी वो आवाज़ चहचहाने की मेरे सपनो में अब आती है कभी ,
पहले तो क्या था आ जाती थी वो रात या दिन कभी भी !
पुर्खों की तरह शायद वो अब कभी आयेगी , मगर दिल कहता है शायद कहीं तो दिख जायेगी !
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घर वो वैसा ही है आँगन भी वही मगर , वो चिडिया अब मेरे आँगन में आती नहीं …
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क्यों हो रहे विलुप्त हर रोज़ क्या हैं ये अफ़साने,
ना कर तू उम्मीद बृज वो ज़माने थे पुराने !
जहाँ नहीं इंसा वहाँ इस पक्षी का क्या काम वर्चस्व इनका खोता रहा सदा बस बचा हुआ है नाम !
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घर वो वैसा ही है आँगन भी वही मगर, वो चिडिया मेरे आँगन में आती नहीं ..