वो गुलमोहर जो कभी, ख्वाहिशों में गिरा करती थी।
वो गुलमोहर जो कभी, ख्वाहिशों में गिरा करती थी,
अब तो बस ख़्वाबों की दहलीज पर बिखरती है।
मुस्कुराती शामें जो सतरंगी आसमां तले बातों में गुजरती थी,
अब अंतहीन एक इंतजार में खुद से हीं लड़ा करती हैं।
सुकूं भरे घर की वो तस्वीर। जो कभी आँखों में बसा करती थी,
यादों की एक जंजीर बन, बस अश्कों संग बहा करती है।
वो राहें जो कभी मंजिलों को, क़दमों से जोड़ा करती थी,
अब ठहरे क़दमों के निशां को, हर मोड़ तरसा करती है।
वो चिट्ठियां जो कभी खामोशियों को, बातों से भरा करती थी,
अब अधूरी मोहब्बत की निशानियां बन, दराजों में ठिठुरती हैं।
वो शिकायतें जो कभी निःशब्द इशारे भी समझा करती थी,
अब तो चीखें भी खुद की रूह को हीं छलनी किया करती हैं।