वो इतनी ही हमारी बस सांझली
वो इतनी ही हमारी बस सांझली
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मेघों मे खो सी गई कहीं प्रगति,
वो इतनी ही हमारी बस सांझली।
कैसी सुबह चढ़ी,दूर हम से हुई,
दर पर थम सी गई शाम साँवली।
औझल आँखों से हुई मन से नहीं,
काया मर जाती,यादें नहीं मारती।
जो दिल के करीब,दूर मन से हुए,
जग की कैसी है रीत दुखदायनी।
घर मे होती कली जो भी लाड़ली,
छूट जाती डगर,किस्मत बावली।
रोती पहर दर पहर सदा एकता,
आशा ही नही,कभी नहीं लौटती।
कैसा खुदा का कहर,छोड़ा शहर,
यादों के झरोखों मे रूहें भागती।
है साथ खड़े,मनसीरत बन सारथी,
मन मंदिर करूँ सदा तेरी आरती।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)