वो अनजाना शहर
तेरी यादों का मुझ पर असर हो रहा है,
आज फिर कोई खुद से बेखबर लग रहा है।
यूं तो वही शाम – सुबह हो रहा है,
लेकिन बिन तेरे रात बे-बसर लग रहा है।
यूं तो चलता रहेगा सफर जिंदगी का,
सुना मगर ये रह-गुजर लग रहा है।
हलचल बहुत है गांव में मेरे,
खाली मगर वो डगर लग रहा है ।
हंसती थी खुशियां जिस घर में अक्सर,
सन्नाटे का उसमें बसर लग रहा है।
बन जाऊं संगिनी मैं तेरे सफर में,
अनजाना मगर वो शहर लग रहा है।
लक्ष्मी वर्मा ‘प्रतीक्षा’