वैदेही का महाप्रयाण
वैदेही का महाप्रयाण
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अब रहना है जिस हाल,
रहो इस जग में !
माँ सीते तो चली भूमि के तल में…
तूने न्याय कभी जाना ही नहीं ,
अटल सत्य है क्या,पहचाना ही नहीं।
अब रोको न उसको पथ में ,
वो जाएगी अब अपने घर में ।
अब रहना है जिस हाल,
रहो इस जग में !
माँ सीते तो चली भूमि के तल में…
मृत्युलोक सदा विचलित पथ से ,
कभी सत्य का साथ नहीं देती ।
जब जाता कोई रुठकर जग से ,
तो जग के सम्मुख क्रंदन करती ।
जब मान प्रतिष्ठा नहीं उपवन में ,
पाया नहीं सिया सुख जीवन में ,
फिर रोको नहीं उसको मग में…
अब रहना है जिस हाल,
रहो इस जग में !
माँ सीते तो चली अपने गृह में…
देखो अब धरा भी कम्पित है ,
मिथ्या आरोपों से,वो कितनी अमर्षित है।
व्यथा से फटेगा,जब कलेजा उसका,
वैदेही को गोद लेगी वसुधा।
युगों युगों से, रीत यही जग की ,
झूठ हँसता है, सत्य सदा रोता।
जब भाव निष्ठुर हो,जनजीवन में ,
माँ सीते क्यूँ रहेगी,अम्बर तल में।
अब रहना है जिस हाल,
रहो इस जग में !
माँ सीते तो चली भूमि के तल में…
अब सोच रहा है, क्या धरणीधर ?
अटल रहो तुम भी,अपने पथ पर ।
धरा खण्डित होगी,तुम हिलना भी नहीं ,
कर्मपथ से विचलित, तुम होना भी नहीं।
धरा पुत्री,प्रलय कभी चाहेगी नहीं,
श्रीराम यदि कर्मपथ है, वो रोयेगी नहीं।
पत्थर रख लो,अब तुम दिल पे ,
वैदेही महाप्रयाण करेगी वसुधा में।
अब रहना है जिस हाल ,
रहो इस जग में !
माँ सीते तो चली अपने गृह में…
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – २४ /१२/२०२२
पौष,शुक्ल पक्ष,प्रतिपदा , शनिवार
विक्रम संवत २०७९
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