वेदना में हैं पहाड
ये टूटते पहाड,
ये खिसकते पहाड,
कहीं बिखरते पहाड,
तो कहीं चटकते पहाड,
हा! ये छिटकते पहाड ।
जहां लहलहाती थी हरियालियां,
जहां सुबह सूरज की किरणों का सुरमयी हो उजाला ,
और सांझ निखर आती हो लिए लालीमा,
आज वही पहाड निर्बल से खडे हैं,
उड रही है धूल की कालिमा ।
यही वो पहाड वेदना से रहे हैं कराह,
वर्षा भी होती है तो टिकती है कहां,
बर्फ के तो अब कहने ही क्या,
पडती है जब भी तो रहती हैं कहां,
सुख गये जलस्रोत अब यहां के ,
रहती थी नमी सदा ही जहां ।
यही पीडा उसकी टीस बन रही,
छलकते हैं आंसू ऐसी आह बन गयी,
अब तो ऐसे मुरझाए हैं पहाड,
बेरुखी से हमारी भरते हुए आह,
बन्धाने को आस कोई तो आए,
या हो गये हैं अब सब ही पराये,
दम भरते थे जो कभी इनकी रखवाली के लिए
आज वही अपने सपनो के मतवाले हुए,
हैं हताश और निराश आंखे पथराई हुई
हमने छोडा जो उसे,कर उसको ही उसके हवाले किए।
अब जब भी टूटते हैं पहाड,
तो निकलती उनसे पीडा कि दहाड,
तो बनती हैं झीलें,बहते हैं नाले,
डराते हुए चलते हैं खाले,
धारण करती हैं रौद्र रुप,ये नदियां,
उजडते हैं गांव-गांव,डूबते हैं शहर यहाँ,
कितनो के जीवन हैं काल में समाते,
कितने ही बस्तियां हैं बिखर सी जाते,
भाई अब तो चेतें, जो समय शेष है,
बचाएं पहाडों को भीषण बनाग्नी से,
ना काटें वह डाल जो हरी भरी हो,
और घुमे सुबह-साझं ,रहें पास उसके,
ले -के अपने पन को,
तो समझेंगे पहाड भी हमारी आत्मीयता को ।
मिट्टी है,पानी है,और बयार है,
ये सभी तो हमें पहाडों के उपहार हैं,
चलो,अब हम सब मिल कर आएं,
पहाड को पहाड की वेदना से बचाएं,
अन्यथा,हम भी जी न सकेंगें,
इसके बिना,शुध्द हवा हम कहां से लायेंगे,
बिन शुध्द हवा के हम कैसे जी पायेंगे ।