वीर अभिमन्यु– कविता।
सौ बार धन्य वह रण भूमि,
जिस पर वह लड़ा काल जैसा।
सौ बार धन्य वह माता,
जिसने जना लाल अभिमन्यु सा।
तेरहवें दिन का युद्ध रहा,
वह कुरुक्षेत्र की रण भूमि,
अर्जुन को रण से दूर भेज,
रच दिया चक्रव्यूह एक विशेष।
कह द्रोण हुए हर्षित,
दुर्योधन विजय के स्वप्न संझोता था।
पर होनी को किसने रोका था?
जो होना था सो होना था।
कौरव दल हर्षित एक ओर,
पांडव दल चिंतित एक ओर,
है कौन धनुर्धर अर्जुन सा?
जो तोड़ सके ये चक्रव्यूह।
वो चक्रव्यूह जो था अभेद,
चिंता का कारण था विशेष।
पर सूरज का तेज क्या छिपता है?
वायु को कौन रोकता है?
धनु लिए हाथ में निकल पड़ा,
वह चक्रव्यूह के भेदन को,
जिस ओर निकलता वीर,
युद्ध भूमि भूकंपित हो जाती,
जिस ओर निकलता वीर,
शत्रु सेना मृत्यु को पा जाती।
क्या लड़ा वीर क्या युद्ध किया?
सब पर भरी वह उस दिन था।
अस्वस्थामा, कृप, द्रोण, कर्ण,
सकुनी मामा और दुश्शासन।
एक ओर अकेला वीर लड़ा,
मृत्यु से अंतिम सांसों तक।
हे धन्य वीर वह अभिमन्यु,
हे नमन वीरता को उसकी,
प्रणम्य हुआ जो कर्मों से,
है धन्य–धन्य जननी उसकी।
लेखक/कवि
अभिषेक सोनी “अभिमुख”