विश्व पृथ्वी दिवस
” आज की धरा ”
आज धरा शांत है
ह्रदय उद्वेलित अशांत है ,
इतनी ज्यादा खामोशी
ज़रा नही सरगोशी ,
ये शांत निशब्द भोर
गुंजायमान नही अब शोर ,
ये शांति कानों में चुभती ,
आवाज़ सन्नाटों की गुँजती ,
सोचा न था कभी
ये दिन भी देखेंगे सभी ,
ज़िंदा रहने की जद्दोजहद
ज़िंदगी बेमानी हो गयी बेहद ,
जहाँ हुआ करती थी रौनक
आज खामोशियों की है हनक ,
ऐसा समां न आया था न आयेगा
क्या कोई भी इसको समझ पायेगा ,
धरा का बोझ न कम था न हुआ है
बस हमारा रौदना थम गया है ,
किसी ने देखी थी कभी ऐसी धरा
हमसे बच कर लिया खुद को हरा ,
हमारे बिना ये ज्यादा संपन्न हैंं
हम तो बस अपने बोझ का देते वजन हैं ,
अब नही समझे तो कब समझेंगे
क्या ऐसे ही मूढ़ बने बैठेंगे ,
अब तो सोचें – समझें और सिंचित करें
अपनी धरा को उसके हक़ से नही वंचित करें ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 22/04/2020 )