विश्वास
नभ में उन्मुक्त,
उड़ता पंछी,
अपने परों के
बूते,
मीलों का सफर,
तय करता है,
अनवरत
आगे बढ़ता है।
कमरख,
तप्त लोहे पर,
वार पर वार,
करता है,
अंततः
अपने भुजबल से,
लोहे को सुघड़,
बनाता है,
नवाकार,
दे जाता है।
कुलाल,
मृत्तिका को,
रौंद-रौंद कर,
शऊरदार,
सुराही,
गगरी,
और
कुंभिका बनाता है।
नन्हीं पतंग,
तिनका-तिनका,
बीन कर,
ललित,
नीड़ बनाती है,
आश्रय पाती है।
विश्वास का पौधा,
अंतरिम निष्ठा से,
सींचना पड़ता है,
तभी
फलीभूत होता है।