विरोधी का मान या अपमान !!
विरोधी को पराजित करना है दस्तूर,
विरोधी को पस्त करते रहें जरुर,
पर विरोधी को ना करें नेस्तनाबूद,
अपने लिए ही ठीक नहीं है यह गुरुर!!
विरोधी का काम ही और क्या है,
वह तो विरोध ही करेगा,
आपकी कमजोरियों को परखेगा,
तब जाकर फिर उजागर करेगा !
आप उन खामियों को सुधार सकते हैं,
भविष्य में ना हो स्वंय को बचा सकते हैं,
फिर भी हम विपक्षी को स्वीकारते नहीं,
उसके वजूद को नकारते रहे हैं,
उसने क्या कहा और क्यों कहा,
मीन -मेख निकालते रहे हैं!
यदि उसके कहे का अहसास कर लें,
थोड़ा सा उस पर ध्यान धर लें,
तो निश्चित ही इसका लाभ होगा,
गर विरोधी ने असत्य कहा,
तो क्या हुआ,
आपको तो पुनरावलोकन का अवसर मिला,
और यदि उसने अनुचित कहा,
तो, फिर परखने वाले की नजरों में,
अपमान भी तो उसी का हुआ!
क्यों खो रहे हैं हम अपनी संवेदना,
क्यों हमें स्वीकार नहीं अपने विरोधी का कहा,
गलत तो हम भी हो सकते हैं,
फिर क्यों मानते हैं कि जो उसने कहा वह गलत ही कहा,
कब अपनी गलती को स्वीकारेंगे हम,
और कैसे इसका अहसास कर पाएंगे हम,
विरोधी को क्यों मानते हैं हम अपने से कम,
विरोधी का ना कीजिए अपमान,
विरोधी को देते रहें मान सम्मान!!