विरांगना – पत्नी एक शहीद की
विरांगना – पत्नी एक शहीद की
सेज सुहाग पर,
सुहाग के लाल जोड़े में,
मेंहंदी तेरे नाम की रचाये,
शर्म की घुंघट ओढ़े,
बैठी थी तेरे इंतजार में,
तुम जो धीरे से आये,
इस चाँद से मुखड़े को,
पास बैठ लेकर हांथों में,
मुसकुराये, घुंघट उठाये,
पानी पानी हो,
मैं शर्म लाज से,
सिमट गई चेहरा झुकाये |
……….
उस दिन तुमने,
दिल में रहती हूँ तुम्हारे,
ऐसा हीं कुछ कहा था प्राण प्रिये,
लगता है आज मुझे,
शायद भूल हुई थी तुमसे,
थे मातृभूमि को तुम दिल में बसाये,
प्राण तो तुमने,
माँ भारती के नाम पहले हीं,
जो कर दिये थे तुमने प्रिये |
………….
स्वामिनी जिस दिल की,
समझ बैठी थी खुद को,
नहीं पता था मुझे, कि
तुम बैठे थे उसमें हिन्दोस्तां बसाये,
कितनी मैं नासमझ थी,
तू तो था हर हिंदुस्तानी के दिल में,
जो मानती कि है कहीं,
दिल में अपने हूँ तुम्हें छुपाये,
नादान थी कितनी, जो
इठलाती और इतराती थी,
अपने हुस्न और जवानी पर,
कि तुम्हे हूँ बहलाये फुसलाये |
……….
जान न पायी थी क्योंकि,
खुशनसीब होते हैं वो,
जननी जन्मभूमि के लिए,
जो मर कर भी अमर होते हैं |
आज तुझे तिरंगे में,
लिपटा देख, सोचती हूँ मैं,
कुर्बानी की सुगंध और देश प्रेम का रंग,
तुम – सा हम भी क्यों ना पा सकें हैं |
लहू मेरा भी एक दिन,
हिन्दोस्तां के काम जो आ सकें,
प्रिये तेरी याद को ढ़ाल बना, मैं
देशभक्त सपूत जनना चाहती हूँ |
आँखों में है आंसू जरूर,
पर वादा तुमसे प्रिये करती हूँ ,
नहीं होने दूँगी बेकार तुम्हारा ये बलिदान,
आज ही लाल को अपने मैं,
तुम सा देश माटी के नाम करती हूँ |
लेखक – मनोरंजन कुमार श्रीवास्तव
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