विरह वेदना
मैं गलत हर वक्त हूं विध्वंस में और वास में।
मैं सही न हो सका इस काल के अट्टहास में।
जाइए अब आप तो मुझको अकेला छोड़कर।
माफ करिएगा कि किंचित दुख दिया दिल तोड़कर।
आप हो सीता सती के जैसे मन निश्छल प्रिए।
और मैं दूषित हृदय का घोर घृण बादल प्रिए।
मैं यहां जिंदा जनाजा बन चुका संताप से।
आप हैं दिल से भला बचिए मेरे अभिशाप से।
मैं नहीं कोई अद्वितीय प्रेम का आकार हूं।
मैं विखंडन भोगता हृदय का आधार हूं।
भाल है मेरा कलंकित आप तो सब जानते हैं।
पल रही मेरे हृदय में भी कपट है मानते हैं।
आप तो हैं पुण्य पावन जैसे तुलसी गंग हो
आप तो हैं सर्व ज्ञानी फिर भी क्यों यूं दंग हो?
हूं नहीं काबिल तुम्हारे लो किया स्वीकार मैं।
आज अपने जिंदगी को कर रहा धिक्कार मैं।
मैं वही हूं जिसने उल्फत को लिखा संसार था।
और हरेक रचनाएं भी तो प्रेम का आधार था।
किंतु अब से ज्ञात है कि मैं बहुत ही चंठ हूं।
हां तभी देखो कि कैसे खुद का कुचला कंठ हूं।
जा रहा हूं छोड़कर तुमको सकल संसार ये।
देखिए कैसे लिखा हूं स्वयं पर धिक्कार ये।
कल अगर कोई कहे तो सत्य को स्वीकारना।
इस कवि के आत्मा को बारहा ललकारना।
सत्य कहने का प्रथा देखो निभाए जा रहा हूं।
अपने दोषों को यहां फिर से बताए जा रहा हूं।
दोष मेरा जो नहीं है उसको अपना कह रहा हूं।
आज अंत: ज्वाल से हां देख “दीपक” दह रहा हूं।
©®कवि दीपक झा “रुद्रा”