विरहण
आधार छंद – अहीर (मापनीयुक्त मात्रिक)
विधान – 11 मात्रा, अंत में गाल, दोहे का सम चरण.
समांत – ‘ आर ‘, अपदांत.
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गीतिका :-
विरहण का संसार।
फँसा बीच मझधार।
केवल इतनी चाह,
मिले पिया का प्यार।
विरहा विषधर नाग,
डंक रहा है मार।
डँसते हैं दिनरात,
तन को सर्प हजार।
व्याकुल तप्त शरीर,
लगे साँस भी भार।
जल बिन जैसे मीन,
तड़पे बारंबार।
तन मन रहे अधीर,
बहे नयन से धार।
बिंदी चूड़ी केश,
सूने सब श्रृंगार।
जब से बिछड़े मीत,
सब लगता बेकार।
विकल रहें दिन-रैन ,
हुई दग्ध बीमार।
लिए मिलन की आस,
पथ को रही निहार।
पूछ-पूछ बेहाल,
कब आये प्रिय द्वार।
पिया मिलन की प्यास ,
कैसे हो उपचार।
कैसी बिछुरन पीर,
गूँज रही चित्कार ।
दिल को देती चीर,
ऐसी विरह पुकार।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली