विनायक की विनय
स्वीकार निमंत्रण सहर्ष तुम्हारा,
पहुंचा मैं तुम्हारे द्वार।
तोड़ अपनी गुल्लक,
तोड़ अपनी जमापूंजी,
किया तुमने मेरा आदर और सत्कार।
सजाया मंडप, चढ़ाया प्रसाद,
बनाये नाना प्रकार के पकवान,
और किया जागरण,
लगा रहा सारा परिवार,
सेवा में न थी कोई कमी,
विदा होते हुए तुम्हारी तरह,
हृदय मेरा भी था जड़,
अगले साल पुनः आने का आग्रह कर,
अश्रु पूर्ण तुमने दी विदाई,
पर भूल गए तुम,
मुझे समुद्र तट पर छोड़,
रह गई यही एक कमी,
तुम्हारी भक्ति में,
क्या यही हश्र करते हो तुम,
अपने अतिथि का,
क्षत – विक्षत कर उसका शरीर,
बिखेर देते हो जहां – तहां,
मेरी ऊंची मूर्ति दरअसल,
है तेरे अहंकार की ऊंचाई।
तेरा प्रेम ही है मेरा श्रृंगार,
मत सजा मुझे रेशम में।
तेरे दीये की रोशनी,
है मेरे नैनों की ज्योति,
मत अंधिया मुझे चकाचौंध से।
तेरे भक्ति पूर्ण भावगीत,
हैं मुझे कर्ण प्रिय,
मत बहरा बना मुझे,
कर्कश फिल्मी गीतों से।
पंचतत्व से मैंने तुझे बनाया,
बन कुम्हार तू भी गढ़ मुझे पंचतत्व से,
एक पंचतत्व दे दूसरे पंचतत्व को विदाई,
इससे विहंगम दृश्य क्या हो मेरे भाई,
पुढ़च्या वर्षी बुला रहा है, तो बसा
तो बसा मुझे अपने हृदय में।
मत बसा मुझे ऊंची मूर्तियों में,
मत बसा मुझे ऊंची मूर्तियों में।