विडंबना इस युग की ऐसी, मानवता यहां लज्जित है।
विडंबना इस युग की ऐसी, मानवता यहां लज्जित है,
अहंकार ने पग यूँ पसारे, की चेतना भी मूर्छित है।
अभिमान का ताप गहन है, नैतिकता तो वर्जित है,
निर्वस्त्र हो रही धरा यहां, और कहते चक्षु मनोरंजित है।
जीवात्मा ये रुग्ण पड़ी, पर आवरण को किया सुसज्जित है,
दम्भ करते सम्मान-हरण कर, यूँ चरित्र की नपुंसकता अर्जित है।
धर्म की परिभाषा नयी है, आडम्बर सुनियोजित है,
प्रतिस्पर्धा रणक्षेत्र बना जहां, विजयध्वज अराजकता को लक्षित है।
भोर में रौशन तिरस्कार घना है, स्याह रात्रि अब इक्षित है,
स्वार्थ की ऐसी विष-वृष्टि है, निर्मल हृदय रक्तरंजित है।
अतिक्रमित विचार हैं यहां, दर्पण स्वयं का विभाजित है,
असमंजस में पशु पड़ा है, मानवीय हिंसा यूँ उर्जित है।