विजय
तुम्हारी बेएतबारी के काले दिनों में
मेरी चिर-संगिनी, मेरी हताशा.
बोलो कि विषाद की मेरी रेखाओं से
तुम्हारा कहाँ कोई सरोकार.
तुम्हारे साथ ग़ुजरे लम्हें मिले मुझे
झाड़ू रक्खे कोने में.
तुम्हारे इस रवैये को देख
हताशा खिलखिला कर हँस रही है.
इक अदनी-सी नादानी भारी पड़ी
तुम्हारे चट्टान-से उम्मेद पर!
मेरी आँख से छलक आए कतरे
का रंग भी गुस्सैल है.
मेरी लाख मनाही के बावजूद
हताशा तुम्हें बेहद कोस रही है.
टूट गयी चीज़ें जुड़ तो जाती हैं,
मगर कभी जुड़ नहीं पातीं.
मुझे आयने से मोहब्बत हो गयी है
और तस्वीरों से नफ़रत.
हो रहे इस घर्षण को महसूस
हताशा अपार फख्र कर रही है.
वर्जनाओं की फेहरिस्त में इजाफा,
कुछ कामों के गुरुत्व से निजात.
पथरीली राहों के मद्देनजर,
मुझे नई चप्पल खरीदनी पड़ी है.
मुझे पहले से और पुख़्ता पा
हताशा अपने सामान बांध रही है.