विजय गाथा…
विजय गाथा…
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बिगुल बजा है सतयुग का ,
संवाद पहुँचाओ जन-जन तक ।
युद्ध रणभेरी बज उठी है ,
प्रहार करो हर दुर्जन तक ।
कुरुक्षेत्र अब है, सज गई देखो ,
वीर धनुर्धर हाजिर है ।
दिख नहीं रहा पर, श्रीकृष्ण सारथि ,
कलियुग है जन व्याकुल है।
कालनेमि भी आ टपका जो ,
रूप बदलने में माहिर है ।
सब जन को चकमा देकर वो ,
मारीच मायावी छलता है।
हूँकार भरो, कुछ ऐसा जग में ,
लहू दग्ध हो उबल पडे़ ।
चित हो दुश्मन एक वार में ,
शत्रुसंहार हो, त्रिभुवन तक ।
अग्नि छुपी है इतनी अंतस में ,
भस्म कर दे हर दानव को ।
अस्थि भी वज्र सा ब्रह्मास्त्र है ,
दधीचि ने बतलाया मानव को ।
अन्तर्मन में बसा राम था ,
बदकिस्मत से,वो गुलाम था ।
आया क्षण, अब वो आज़ाद है ,
पर मन कैसे, अब भी हैरान है।
धूमिल प्रतिष्ठा फिर हासिल हो ,
खोया स्वाभिमान भी जाग्रत हो।
भूखा सोता रहे न कोई ,
चिराग जलाओ घर-घर तक ।
वक़्त, अश्क बन तुम्हें डराये ,
ऐसा न कुछ काम करो ।
विधि मर्यादित कार्य हो जग में ,
सत्कर्म करो अंतिम क्षण तक ।
शिशिर-वसंत की संधि वेला में ,
मृदुल वसंत का बीज धरो।
नीरवता संग कौतुहल जग में ,
मनुहार करो तुम जन-जन तक।
बिगुल बजा है सतयुग का ,
संवाद पहुँचाओ जन जन तक…
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – १० /०१ / २०२२
पौष, शुक्ल पक्ष, अष्टमी
२०७८, विक्रम सम्वत,सोमवार
मोबाइल न. – 8757227201
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