विचित्र घड़ी….
विचित्र घड़ी….
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बहुत ही विचित्र घड़ी आ गई है !
कोई किसी को पूछ तक नहीं रहा है !
जो आपस में गहरे दोस्त हुआ करते थे !
वो सभी अब दुश्मन बनकर बैठा है !!
विचित्र घड़ी…….
लोगों के मूड का अंदाजा मुझे नहीं लगता !
कब यह बन जाता और कब ये बिगड़ जाता !
बनने , बिगड़ने का कौन सा ख़ास सूत्र होता !
कोई किस तरह अपेक्षाओं पे खड़े उतर सकता !!
विचित्र घड़ी…….
क्या सफलता किसी को अपनों से दूर करती ?
या असफलता ही इसके लिए पूर्ण जिम्मेदार होती !
या दोनों ही चीजों से इसका कोई वास्ता नहीं होता !
फिर , इस दूरी को कौन सा घटक प्रभावित करता !!
विचित्र घड़ी…….
जीवन चक्र तो यूॅं ही अनवरत चलता ही रहता !
सफलता व असफलता का क्रम भी चलता रहता !
फिर इससे दोस्त, रिश्तेदारों को क्या फ़र्क पड़ता !
क्यों नहीं मनुज आपस में घुल-मिल कर है रहता !!
विचित्र घड़ी…….
इस दुनिया की अजीब सी दास्तान समझ नहीं आती !
वो कभी निकट आती तो कभी कोसों दूर चली जाती !
समय-चक्र के साथ-साथ सदा वो भी बदलती जाती !
किसी के मन की बात जान लेना कठिनाई भरी होती !!
विचित्र घड़ी…….
घड़ी की विचित्रता का दायरा आगे बढ़ने से रोकें !
छोटी-मोटी बातों पर आपस में मनमुटाव को रोकें !
ख़ासकर जरूरत विशेष में तो एक दूसरे को पूछें !
जरूरत से ज़्यादा नहीं कभी आप अपनों से रूठें !!
स्वरचित एवं मौलिक ।
सर्वाधिकार सुरक्षित ।
अजित कुमार “कर्ण” ✍️✍️
किशनगंज ( बिहार )
दिनांक : 25 सितंबर, 2021.
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