विचारो की गंगा
कब से मेरी रगो मे तू घूमती रही
प्रतिकूलता के कारण बाहर न आ सकी
ऐ मेरे विचारो ,जज्बातो की गंगा!
तू जगह जगह पहुंची पर
संगम से न मिल सकी
गंगोत्री से निकली तू, तो बहुत पवित्र थी
सैकडो मिले तुझसे, मिलकर प्रणाम किया
सैकडो ने सराहा,बहुतो ने तेरे सामने खुद को खाली किया
पर जायें कहां,ढूढें कहां वो विशाल जलराशि
जिसके आगोश मे समाकर लगे
कि गंगा ने संगम ,संगम ने समन्दर पा लिया
मेरी रगो मे दौड कर क्या तू थकती नही
मुझे छोडकर एक पल क्या तू जा सकती नहीं
कुछ देर रहने दे मुझे ,अपने बगैर अकेला
देखूं तो तुम बिन जिन्दगी भाती है या नहीं