विक्षोभ
विक्षोभ
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स्तब्धित दिशाएँ
बेकली हवाएँ
व्यथित अंबर
कह रहा आज –
बेहद निर्मोही ,
बडी निर्दयता से ‘ कैसी ‘ –
मिट रही , क्यों कोई मिटा रहा लाज !
धुंधलाती परिवेश से-
नष्ट हो रहे प्राण ,
हा ! विकट रूग्णता , घोर त्राण !
अब अनविकरणीय –
नष्टप्राय संसाधन हो रहे विलुप्त ,
दुःखद,
धरा भी संकुचित हो गई …
परिणाम आज-
मिट रहे संतान ;
सावधान !!!
गंभीर विप्लव की ओर बढ रही धरा
सौम्यता भी खो चुकी आज लुप्त ,
हो रहे मृतप्राय जनमानस वितान !
लूट रही सौम्य प्रकृति अनवरत…
परिणाम ,
दुःखद् भयावह
जन विकल उद्वेलित
भाव – भंगिमाएँ भी चढी हुयी
निरस , निकृष्ट |
हो रहा सब कुछ अनर्थ,
कराल- काल , कवलित करने राख
दीखा रही किसी अवश्यंभावी विध्वंस को !
बहुत देर हो चुकी बीते क्षण-क्षण ,
घीर चुकी नैतिकता
सब उपक्रम व्यर्थ
हो गयी मलिन रेखा सम्पन्नता की ;
क्षीण उर्वरा ,
बहुत कटुता ! विकलता !! विक्षोभ !!!
©
कवि आलोक पाण्डेय