“विकास चाहिए “
“जिस घर में मुमकिन न थी चिरागों की रोशनी,
उनको आँगन में अपने प्रकाश चाहिए,
हम सब्र से हैं ताक में सुधरते हालात के,
जिसने बिगाड़ा उसे तात्कालिक विकास चाहिए,
विदेश यात्रा पर तंज़ कस रहे हैं वो,
घूमने के खातिर जिन्हें अवकाश चाहिए,
बरसों लूटा देश को जिसने मिल बाँटकर ,
उन्हें आज देश का हिसाब चाहिए,
लाखों सवाल खड़े किए जिसने राष्ट्र में,
उन विपक्षियों को सभी जवाब चाहिए ,
आजादी की जिसने, छीन ली खुशी,
वीरों की शहादतें जिसने व्यर्थ की,
बेच कर ज़मीर खुद को सम्मानित किए,
शहीदों की चिताओं पर जिसने सियासत की ,
उन्हें सरहदों का हर राज़ चाहिये,
लुटेरों को लूटने का आगाज़ चाहिये,
चोर सारे बन गये, हैं मौसेरे भाई,
भ्रस्टाचार का वही साम्राज्य चाहिए,
लूटने कमाने का रिवाज़ चाहिए,
देखते हैं झुंड में पहुँचे है मंचों पर,
मिल रहे एक दूजे से ब्रेकफास्ट लंचों पर,
निर्वस्त्र करने को आतुर थे,वो अब हाथ मिलाते हैं ,
क्या सत्ता पाने की खातिर गरिमा का मूल्य लगाते हैं ,
इंसानों को तो लूटा ही,पशुओं का चारा निगल गये,
अपनों के घर को ठुकराया गैरो के संग में निकल गये ,
राज़नीति के गागर में ज़हर का सागर घोल रहें हैं,
गदहों के सिर पर सींग आ गये ,
गीदड़ शेरों सा बोल रहे हैं,
सोचते हैं जनता भूल गयी ,
जो बहारों में, पतझड़ का चलन रहा ,
कलियों की चिताओं पर, फूलों का ही हवन रहा ,
धर्मों में हमें लड़ाने की बातें छेड़ा करते थे,
कुर्सी बचाने के खातिर जज़्बाते छेड़ा करते थे,
काजू भूनें प्लेट में रख व्हिस्की भर गिलासों में
संस्कृतियों का नंगा नाच जो ,
विधायक आवासों में देखा करते थे ,
भूल किए है बरसों अब तो पश्चाताप चाहिए ,
हर हिंदुस्तानी को रामराज चाहिए,
सभ्यताओं की बची अगर लाज़ चाहिए,
हक़ महिलाओं का सुरक्षित आज चाहिए,
नीतियों की जगह हो राज़नीति में,
एकता की धुन छेड़े वो साज़ चाहिए,
हर क्षेत्र में विजेता का खिताब चाहिए,
बच्चों के हाथों में औज़ार नही किताब चाहिए,
नशामुक्त्त देश का हर नागरिक रहे,
विकसित राष्ट्र हो सभी को रोज़गार चाहिए,
गरीबी का और ना कोई प्रहार चाहिए,
अँधेरे को मिटा सके वो आफ़ताब चाहिए,
भारत हमारा हमको लाजवाब चाहिए”